भण्डाफोर ब्यूरो-
शशि कुमार यादव की रिपोर्ट-
हाथरस। शायद उमा भारती की सलाह के बाद योगी सरकार ने मीडिया कर्मियों के हाथरस जाने और पीड़ित परिवार से मिलने पर लगी पाबंदी हटा दी । गांव में मीडिया के लोगों की आवाजाही शुरू हो गयी है। यहा स्थिति ये है कि गांव में लोगों से ज्यादा पुलिस वाले तैनात हैं। पीड़िता के परिवार वालों की हर हरकत पर नजर है।
पुलिस के आंतक और डर से अब तक खामोश पीड़िता की भाभी का सब्र छलक ही गया। उन्होंने तो आज यहां तक कह दिया कि हमें नहीं मालूम कि मेरी ननद के नाम पर पुलिस ने रात को किसे जला दिया ? पीड़िता की भाभी ने इस कांड के बाद से विवादों में रहे डीएम पर गंभीर आरोप लगाए।
उन्होंने कहा कि जब हम लोगों ने बॉडी देखने की मांग की तो डीएम ने कहा कि आपको पता है पोस्टमॉर्टम के बाद डेड बॉडी का क्या हाल हो जाता है, हथौड़े से मारकर हड्डियां तोड़ दी जाती है। तीन दिनों से पुलिस की दहशत और पाबिदियों के साये में जी रहे परिवार को यह भी नहीं पता कि रात एम्बूलेंस में पीड़िता की लाश थी भी कि नहीं।
पीड़िता के परिवार ने कहा है कि जिले के डीएम ने उनसे अभद्रता से बात की। उनने मुताबिक डीएम ने कहा कि अगर तुम्हारी बेटी की कोरोना से मौत हो जाती तो तुम्हें मुआवजा मिल जाता। परिजन बोलते हैं डीएम बोलते रहे कि ऐसी लाश को तुम लोग देख पाते. 10 दिन तक खाना नहीं खा पाते। पीड़िता की भाभी ने कहा कि डीएम उन्हें बार बार कह रहे थे कि तुम्हें मुआवजा तो मिल गया।
तुम्हारे खाते में कितना पैसा आया है, तुम्हें पता है? पीड़ित परिवार को योगी सरकार की किसी भी एजेंसी पर भरोसा नहीं रहा। वो कहते हैं कि सब मिले हैं। एसआईटी वाले पूछताछ करने आए थे वो भी मिलें हैं। परिजन डरे हुए हैं। वे कहते हैं कि हम लोग नार्को टेस्ट नहीं करवाएंगे। डीएम साब कुछ भी रिपोर्ट बनवा सकते हैं।पीड़िता की भाभी ने कहा कि उन्हें बाहर नहीं दिया जा रहा था क्योंकि उन्हें डर था कि वे लोग सच्चाई मीडिया को न बता दें।
पीड़िता की भाभी इस वक्त बेहद परेशान हैं। उन्होंने कहा कि उनका परिवार नार्को टेस्ट नहीं करवाएगा। वे कहती हैं कि अगर नार्को टेस्ट ही करना है तो डीएम और पुलिस वालों का किया जाए। हमने तो बिटिया तक गंवा दी अब क्या बाकी है।
वैसे इस मुद्दे पर तमाम जानकारों का कहना है कि अंतिम संस्कार के लिए शव को परिवार को सोंपना पुलिस की जिम्मेदारी बनती है।
वह कानूनी रूप से बाध्य भी है। वहीं तमाम लोगों का कहना है कि घर वालों की यह शंका जायज लग रही है कि पता नहीं पुलिस ने किसका अंतिम संस्कार कर दिया ? दरअसल प्रशासन का रवैया गैंगरेप कांड में अंत तक संदिग्ध रहा है। चाहे वह पीड़िता के मरने से पहले की मामला हो या पीडिता की मौत के बाद की दास्तान। कायदे से पीडिता की मौत के बाद उसके शव को परिजनों को सौंप देने चाहिए पर यहां शुरआत से ही प्रशासन ने ही शव को अपने कब्जे में ले लिया था।
प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक एम्बूलेस में पीड़िता के शव के साथ उसके पिता भी नहीं थे। पुलिस ने परिजनों को एक दूसरी गाड़ी में बैठा दिया था। दिल्ली से हाथरस तक के लंबे रास्ते में म किन रास्तों से गुजरी, कहां रुकी, ये परिजनों को नहीं मालूम? एम्बूलेंस जब गांव में आयी तो भी शव को ना तो गाड़ी से नीचे उतारा गया और ना मृतका का चेहरा ही परिजनों या किसी को दिखाया गया।
डीएम हाथरस ने फैसला कर लिया कि लाश का चेहरा देखने लायक नहीं था। अगर देख लेते तो खाना नहीं खा पाते। इसलिए नहीं दिखाया। एक गांव वाला कहता है कि कि डीएम साब ! निवाला तो अभी भी परिजनों के गले से नहीं उतर पा रहा है?